शुक्रवार, जनवरी 15, 2010

दिक् और काल की अन्तर्क्रीड़ा

दो उपन्यासों के हवाले से
भाग एक
इस भाग में सिर्फ उपन्‍यास पर बात की गई है. दूसरे भाग में कृष्‍णा सोबती के ऐ लड़की और अलका सरावगी के कलिकथा वाया बाईपास में दिक् और काल के तत्‍वों पर बात हुई है. सुमनिका ने यह परचा कई साल पहले एक सेमिनार में पढ़ा था. बाद में यह साक्षात्‍कार में छपा भी. ब्‍लाग में गंभीरता से पढ़ने लिखने की सामग्री भी रहे, इस मंशा के साथ यह लेख यहां रख रहा हूं. फिर भी लंबे लेख के दो भाग कर दिए हैं. अभी यह भाग पढि़ए. अगली पोस्‍ट में दूसरा भाग पेश करूंगा. -अनूप

जीवन का यथार्थ कहिए या जीवन का सत्य, कल्पना एवं सौंदर्य से मंडित होकर जब किसी रूपाकार में ढलता है, तभी कलाकृति बनती है अन्यथा वह केवल अमूर्त कलाभावना मात्र है। बिना रूप के कला की रचना तो क्या परिकल्पना भी संभव नहीं। वास्तु, मूर्ति, चित्र जैसी दृश्य कलाओं में रूप जहां मूर्त, स्थिर या दृश्यात्मक होता है, वहीं काव्य-साहित्य और संगीत जैसी अमूर्त कलाओं में यह एक भीतरी संरचना होता है जिसे स्पेस या स्थान में नहीं समय में पकड़ना होता है। यहां विभिन्न अंग एक सम्पूर्णता में बंधे होते हैं। उनकी एक व्यवस्था होती है।
हम जानते हैं कि रूप और विषय-वस्तु को अविभाज्य माना जाता है। यह और बात है कि एक दूसरे का महत्व घटता बढ़ता रहता है। यह चुंबक के दो ध्रुवांतों की तरह हैं जो विपरीत होकर भी अलग नहीं। ये एक दूसरे से टकराते भी हैं, नुकसान भी करते हैं और जहां इनमें द्वंद्वात्मक एकता स्थापित होती है, वहीं कला की सिद्धि है।
रूसी रूपवाद से जुड़े चिंतक थे विक्टर श्क्लोव्स्की, जिन्होंने 'कला बतौर तकनीक' की धारणा पेश की। उन्होंने तकनीक में डीफैमिलीयराइजेशन या अपरिचयीकरण की बात की। इसी परंपरा में प्रकांड भाषा वैज्ञानिक रोमन याकोब्सन हुए जिन्होंने काव्यशास्त्र को भाषाशास्त्र के अंतर्गत माना। उन्होंने यह भी कहा कि भाषाई संरचना केवल वाचिक भाषा का विज्ञान नहीं, वरन संकेतशास्त्र या सिमियॉटिक्स का हिस्सा है। एक मूल संरचना के कारण ही कलाओं की आपसी तुलना संभव है। शब्द और संसार का आपसी रिश्ता केवल वाचिक नहीं, बल्कि तमाम तरह की प्रोक्तियों (डिस्कोर्सिस अथवा अर्थखंड) से जुड़ा है। याकोब्सन ने भाषा के अनेक प्रकार्यों की चर्चा की। वस्तुभाषा और पराभाषा की चर्चा की तथा प्रोक्ति में मैटाफर (रूपक) और मैटानमी (लाक्ष्णिक धाराओं का फूटना और खुलना) के द्वंद्व के सिद्धांत को रखा। तो रूसी रूपवाद से होती हुई 'कला के वस्तुगत विवेचन' की यह परंपरा 1930 के प्राग स्कूल से होती हुई 1960-70 के पश्चिमी यूरोप के संरचनावादियों तक जाती है। दूसरी ओर इंगलैंड और अमरीका में इनके बरक्स आई ए रिचड्र्स से डबल्यू के विमसैट तक 'न्यू क्रिटिक्स' थे। श्क्लोव्स्की ने काव्यभाषा और गद्यभाषा को अलगाया था जिसे रिचड्र्स ने क्रमश: इमोटिव तथा रैफ्रेंशियल भाषा कहा।
गद्य की सबसे युवा विधा उपन्यास है। आधुनिक पूंजीवाद के दौर में जन्मी यह विधा जीवन फलक की विराटता और उसकी बढ़ती हुई जटिलता का सही प्रतिबिंबन कर पा सकी है। जॉर्ज थॉम्प्सन ने इसके रूप की तुलना सिंफनी संगीत से की है जो कि एक व्यक्ति की सांगीतिक परिकल्पना होकर भी 'एक ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन है जिसमें लगभग सत्तर या अस्सी वादकों का अतिसंगठित समूह हिस्सा लेता है'। उपन्यास भी एक व्यक्ति की आवाज नहीं है। इसमें जीवन के अनेक स्तरों, रूपों, स्वभावों, वृत्तियों के प्रतिनिधि पात्रों की 'आवाजें' सुनाई देती हैं। उनका आपसी तनाव, संवाद, खामोशी सब अंतर्ग्रथित रहती है। मिखाइल बाख्तिन (1895-1975) ने दोस्तोएव्स्की के उपन्यासों का अध्ययन करते हुए उसे पोलिफोनिक (बहुस्वरीय) फिक्शन कहा जहां अनेक विचार बिंदु और अनेक कोणों पर खड़ी प्रोक्तियों की क्रीड़ा होती है। बाख्तिन ने बाद में यह पाया कि यह विशेषता उपन्यास का निजी चरित्र गुण है जो प्राचीन एवं मध्य युगीन लोक रूपों - पैरोडी, व्यंग्य रूपक तथा कार्निवाल से फूटा है। बाख्तिन ही थे जिन्होंने उपन्यास और कामेदी को काव्यशास्त्र के हाशिए से निकाल कर मध्य में केंद्रित किया था।
श्क्लोव्स्की कहते हैं कि कला मनुष्य में विशिष्ट प्रतीति (पर्सेप्शन) या अनुभव जगाना चाहती है, क्योंकि आमतौर पर हमारा संसार को देखना, सुनना, समझना सब कुछ एक आदत में बदल जाता है। वे इसे हैविचुलाइजेशन कहते हैं जिससे हम चीजों के बारे में सूचना रखते हैं, उन्हें जानते हैं पर अपनी सम्पूर्णता में 'देख' नहीं पाते। वे कहते हैं, 'तमाम कुछ और तमाम जीवन जैसे होकर भी नहीं है और कला इसीलिए है कि जीवन की इस अनुभूति को फिर से जिला दे... वस्तुओं का अनुभव जगाए और पत्थर को पथरीला बना दे।' अत: कला की सर्वप्रमुख तकनीक है, वस्तु को कुछ अपरिचित बना देना, रूप को कठिन बना देना ताकि हमारी पर्सेप्शन की गति दीर्घ हो जाए।
उपन्यास के विषय में रीज़ कहते हैं, 'नाटक से भिन्न उपन्यासकार के पास अबाध समय होता है, चरित्रों, उनके दृश्यों और उनकी कथा कहने को। वह अपने दर्शन और राय को सीधे सीधे भी उसमें रख सकता है।' किस्सागोई या प्लेन नैरेटिव उपन्यास की सबसे सामान्य विधि है। आम तौर पर उपन्यासकार सर्वज्ञाता (ओम्नीसिएंट) दृष्टि रखता है और पात्रों के भीतर बाहर का वर्णन करता है। लेकिन यह तकनीक उपन्यास के उस ढांचे में नहीं समा पाती जहां किस्सागो कथा को उत्तम पुरुष शैली यानी 'मैं' के माध्यम से रखता है। उससे शिल्प ज्यादा यथार्थ और प्रामाणिक तो बनता है लेकिन दूसरे पात्रों में बहुत गहरे नहीं उतर पाता। दूसरे पात्रों के बाहरी इम्प्रैशन्स और व्यवहार के पैटर्न उभरते हैं जैसे चार्ल्स डिकन्स के 'डेविड कॉपर फील्ड' में। पात्रों के संवादों या पत्रों के जरीए भी कथाकार वर्णन करता है। आधुनिक उपन्यासकार जेम्स जॉयस तथा वर्जीनिया बुल्फ इन्टीरियर मोनोलोग या स्ट्रीम ऑफ कान्शियसनैस का इस्तेमाल करते रहे हैं। यह भौतिक समय के क्रम को तोड़कर चेतना के समय में जीने वाला उपन्यास होता है।
वास्तविक जीवन का प्रतिबिंब ही कला में होता है, यह मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की बहुत मूल स्थापना है। लेकिन जीवन का तो कोई ओर छोर ही नहीं। वास्तविक समय अपनी अजस्रता में बह रहा है, वास्तविक स्पेस, स्थान या दिक् भी विराट एवं अनंत है। कलाकार जो प्रातिबिंबिक संसार रचता है, उसमें समय और स्थान की अपनी सर्जना करता है। अजस्र और फैले हुए दिक्काल में वह किसी बिंदु पर खूंटा गाड़ता है और उसके इर्द गिर्द संसार रचता है। राजी सेठ के शब्दों में जैसे पटिया पर फैले हुए आटे की लोई से हम छोटी छोटी गोल टिकियां काट लें।
दिक् एवं काल तो विज्ञान एवं दर्शन की मूल और महत् दार्शनिक धारणाएं हैं। लेकिन समय ने इन धारणाओं को भी परिवर्तित किया है। न्यूटन के लिए समय और स्थान परम निरपेक्ष थे तो आइन्स्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत ने उसे देखने वाले की स्थिति के सापेक्ष बना दिया। क्वान्टम यांत्रिकी ने पदार्थ को ऊर्जा में बदल दिया। काल्पनिक समय की धारणा दी तथा समय के कम से कम तीन तीरों की बात की। ये धारणाएं एक ओर भौतिक हैं लेकिन साथ ही चेतना से जुड़कर ये कला की अंतर्वस्तु में पैठती हैं। इन धारणाओं का शिल्प में भी प्रयोग किया गया है। वास्तुकार अपने स्थान को बांटता है तो चित्रकार भी कैनवस की स्पेस का विभाजन तरह तरह से करता है। कहते हैं कि भारतीय वास्तुकला में वर्ग और गोलाकार दरअसल दिक् एवं काल (जो भारतीय संदर्भों में रैखिक न होकर चाक्रिक होता है) के प्रतिनिधि हैं।
ऐसा भी नहीं है कि समय और स्थान दो नितांत अलग थलग और एकाकी सत्ताएं हों। देश का प्रभाव काल पर और काल का प्रभाव देश पर पड़ता है। ये दो धारणाएं रूप और अंतर्वस्तु की अंत:क्रीड़ा को जन्म देती हैं।

1 टिप्पणी:

अजेय ने कहा…

सॉरी, मेरे पास इतने पीडी एफ फाईल हो गए कि पता नहीं लग रहा कहाँ से शुरू करूँ.... सुमनिका जी के लेख सतही पाठ से नहीं समझे जा सकते. इसे मैं ध्यान से देखूँगा. फिलहाल एक प्रश्न आप की टिप्पणी को ले कर है. आदिम और लोक कलाऑं में गज़ब का आकर्‍षण होता है. लेकिन आदि वासियों और जनसामान्य का काल बोध वैसा प्रखर नहीं होता. क्या आदिम और लोक कलाएं इस दृष्टि से दोयम दर्जे की मानी जाएंगी?
जिज्ञासा है, अन्यथा न लेंगे.