मंगलवार, सितंबर 22, 2009

प्रकृति का पूर्ण राग : बैजनाथ

एक

हिमाचल प्रदेश में पठानकोट मंडी के रास्‍ते में शिव का प्राचीन मंदिर है - बैजनाथ. अब यह पुरातत्‍व विभाग के पास है. फोटो ख्‍ींचना मना है. हम लोग कई बरस पहले धर्मशाला से मंडी जाते हुए इस मंदिर में गए. और इस मंदिर की रचना और मूर्तियों को देखने की कोश‍िश की. यह लेख विपाशा में छपा था। लेख चूंकि लंबा है इसलिए बेहतर है इसे किश्‍तों में पढ़ा जाए. उम्‍मीद है आपको अच्‍छा लगेगा.


यह साल का वह छोटा सा टुकड़ा था जब हम मुंबई की रेलपेल से छिटक जाया करते। एक लंबी कठिन यात्रा और फिर हिमाचल का एक छोटा सा कस्बेनुमा शहर - धर्मशाला। इस बार तो वक्त और भी कम है - चलो धौलाधार पर्वत शृंखला की छांह जब तक मिल जाए। और फिर बहुत सा समय दुनियावी चिंताओं और चर्चाओं में फिसल जाता है। लेकिन तो भी कुछ क्षण हैं जो खामोश टपकते रहते हैं - आत्मा के मटियाले बर्तन में। धौलाधार पर्वत माला की लहरीली रेखाएं, गांधारी पुष्पों में महकती सुबहें और सन्ध्याएं, चांदनी में नहाती गुपचुप पहाड़ी रातें, पगडंडियों पर चलते हुए साथ चलने वाली बसबाड़ियां, चीड़ के वृक्ष, झाड़ियां और उनमें से झांकने वाले जंगली फूल और फल। अचानक घुमड़ पड़ने वाली घटाएं और बरस पड़ने वाले मेंह।

हमें मंडी पंहुचना है। पालमपुर के बाहर बाहर से पंचरुखी और फिर थोड़ी देर अंदरेटा रुकते हुए बैजनाथ एक प्रमुख पहाड़ी पड़ाव था। रास्ते में कई पहाड़ी सोते छलछलाते हैं। पहाड़ी लोग इन्हें खड्ड और नाले कहते हैं। पहाड़ी लोक गीतों में अक्सर गहरी खड्डों और ऊंचे पहाड़ों का जिक्र होता आया है -

डुग्गियां खड्डां ते निरमल पाणी / अक्खें बक्खें दो कुआलू / जीणा, पहाड़ां दा जीणा

या फिर

डुघी डुघी नदियां ते सैली सैली धारां / छैल छैल गह्बरू ते बांकियां नारां।

चीड़ के वन आते हैं और हम उनमें से गुजर जाते हैं। फिर आसपास चाय के बागान दिखते हैं और पीछे छूट जाते हैं। धूप खासी तेज है। कैंथ के पेड़ दिखते हैं और लाल बुरुंश। यह बदलता पर्वतीय परिदृश्य एक सन्ध्या की स्मृति जगाता है। जब हम डॉ। बी. सी. खन्ना के सादे सुंदर कमरे में बैठे हैं। इस बार उनका कमरा कुछ और खाली सा लग रहा है। कमरे में खुलने वाले तीन दरवाजों पर टुनटुनाने वाली घंटियां बीच बीच में मीठे स्वरों में बज उठती हैं। हमेशा की तरह अपनी खींची हुई तस्वीरों की अलबमें हमारे सामने रख देते हैं। हिमाचल के शाश्वत प्रेम में रत यह मनोचिकित्सक सौंदर्य का अद्भुत पारखी है। उनकी अलबमें पहाड़ी फूलों, पेड़ों और और दृश्यों से भरी पड़ी हैं - पर उनका मन है कि भरता ही नहीं। वे बताते हैं, यह कैंथ का पेड़ है - सफेद फूलों वाला, यह लाल फूलों वाला बुरुंश है, यह नाशपाती के फूलों वाला गुलाबी पेड़...

एक ही तरह के पेड़ के न जाने कितने चेहरे और मूड्ज हैं जो अलग अलग दृष्टि बिंदु और प्रकाश के संदर्भ में बदलते जाते हैं। लगता है यह चित्र इंसानी पोर्टरेट्स की तरह व्यक्तित्ववान हैं। फिर उनकी अलबमों में लंबी आंखों वाली खूबसूरत गद्दिनें और मेहनतकश गद्दियों के चेहरे उभरते हैं। कहीं इंसानी हंसी और मुस्कान के अनेक शेड्ज तो कहीं उदासी के, कहीं कौतुक के तो कहीं सोच में डूबे चेहरों के। कमरे में उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की मधुर ठुमरी के वृत्त के वृत्त बन रहे हैं - और डॉ. साहब रसोई से चुपचाप गिलासों में चाय ढाल कर ले आते हैं।

1 टिप्पणी:

अजेय ने कहा…

बहुत सुन्दर! लेकिन इस से बड़ा पोस्ट न लगाएं. ज्वाला जी का इंतज़ार कर रहा हूं.